Tuesday, 12 July 2011

अंदाज़ अपने देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कि कोई देखता न हो।

ये दिल, ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया, आवारगी
इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ, आवारगी।
कल शब मुझे बेशक्ल सी आवाज़ ने चौंका दिया
मैंने कहा तू कौन है उसने कहा आवारगी।
इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब
सहरा की भीगी रेत पर मैंने लिखा आवारगी।
ये दर्द की तनहाइयाँ, ये दश्त का वीराँ सफ़र
हम लोग तो उकता गये अपनी सुना, आवारगी।
कल रात तनहा चाँद को देखा था मैंने ख़्वाब में
‘मोहसिन’ मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी।

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